महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम को आज ही के दिन फांसी हुई
महात्मा गांधी की हत्या के मामले में वीर सावरकर पर मुख्य आरोप था कि वह हत्या के षड्यंत्र में शामिल थे। इस संदर्भ में उनकी भूमिका और दलीलों पर चर्चा करना महत्वपूर्ण है।
गांधी हत्याकांड और सावरकर की भूमिका
महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने की थी। शुरुआती जांच के दौरान यह दावा किया गया कि यह हत्या सिर्फ नाथूराम गोडसे और उनके सहयोगी नारायण आप्टे का काम नहीं था, बल्कि इसके पीछे एक बड़ा षड्यंत्र था। इस षड्यंत्र में सावरकर का नाम प्रमुखता से उभरा।
सावरकर पर आरोप था कि:
1. नाथूराम गोडसे और नारायण आप्टे से उनकी नजदीकियां थीं।
2. गोडसे और आप्टे ने हत्या से पहले सावरकर से मुलाकात की थी।
3. उनके सहयोगियों ने यह बयान दिया कि हत्या के लिए सावरकर ने प्रेरित किया।
सावरकर की दलीलें
1. साक्ष्य की कमी का तर्क: सावरकर के वकीलों ने अदालत में यह तर्क दिया कि उनके खिलाफ प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं हैं। किसी ने यह स्पष्ट रूप से नहीं देखा कि सावरकर ने हत्या के लिए कोई आदेश दिया।
2. षड्यंत्र में शामिल न होने का दावा: सावरकर ने अपने बयान में कहा कि गांधी की हत्या के षड्यंत्र से उनका कोई लेना-देना नहीं है।
3. राजनीतिक प्रतिशोध का तर्क: यह भी कहा गया कि उन्हें राजनीतिक रूप से फंसाया जा रहा है।
सावरकर को बरी करने का कारण
सावरकर के खिलाफ सबसे महत्वपूर्ण गवाही उनके करीबी सहयोगी अप्टे और गोडसे के सहायक दिगंबर बड़गे की थी। बड़गे ने यह बयान दिया कि गोडसे और आप्टे सावरकर से मिलने गए थे, और सावरकर ने उन्हें कहा था, “यशस्वी हो कर आओ”।
हालांकि, सावरकर को बरी करने के प्रमुख कारण थे:
1. बड़गे की गवाही को अपर्याप्त माना गया: बड़गे का बयान केवल परिस्थितिजन्य था और इसे मजबूत सबूत नहीं माना गया।
2. प्रत्यक्ष साक्ष्य का अभाव: सावरकर के खिलाफ कोई ठोस दस्तावेज़ी या प्रत्यक्ष सबूत पेश नहीं किया जा सका।
3. जांच की कमजोरियां: तत्कालीन जांच एजेंसियों की ओर से पर्याप्त गहराई से जांच नहीं की गई, जिससे मामले में कमज़ोरी आ गई।
ऐतिहासिक विवाद

हालांकि अदालत ने सावरकर को बरी कर दिया, लेकिन इस फैसले को लेकर बहस जारी रही। कई इतिहासकार मानते हैं कि सावरकर के खिलाफ पर्याप्त परिस्थितिजन्य साक्ष्य थे, लेकिन कानूनी तौर पर उन्हें दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त ठोस प्रमाण नहीं थे।
यह मामला भारतीय इतिहास में न्यायपालिका
, राजनीति और नैतिकता के जटिल सवालों को उठाता है।
महात्मा गांधी की हत्या 30 जनवरी 1948 को नाथूराम गोडसे ने नई दिल्ली में बिड़ला भवन के बाहर गोली मारकर की थी। इसके बाद हत्या की जांच के दौरान यह दावा किया गया कि यह एक सोची-समझी साजिश थी, जिसमें गोडसे और उनके साथियों के अलावा हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर भी शामिल थे। इस मामले में सावरकर का नाम आने के पीछे कुछ अहम घटनाएं और गवाहियाँ थीं।
सावरकर पर लगाए गए आरोप
हत्या के बाद की गई जांच में यह सामने आया कि:
1. नाथूराम गोडसे और उनके करीबी सहयोगी नारायण आप्टे गांधीजी की हत्या से पहले सावरकर से मिले थे।
2. हत्या का विचार सावरकर के एक निजी गुट, जिसे “सावरकर मंडली” कहा जाता था, के भीतर पनपा था।
3. सरकारी वकील ने दावा किया कि सावरकर ने गोडसे और आप्टे को हत्या के लिए प्रेरित किया और उन्हें आदेश दिया था।
महत्वपूर्ण गवाहियाँ
सावरकर के खिलाफ सबसे प्रमुख गवाही दिगंबर बड़गे ने दी, जो सावरकर के सचिव रह चुके थे। उन्होंने कहा:
गोडसे और आप्टे ने हत्या से पहले सावरकर के साथ बंद कमरे में मुलाकात की थी।
सावरकर ने दोनों से कहा था, “यशस्वी होकर लौटो”, जिसका मतलब यह माना गया कि वह उनके मंसूबों को समर्थन दे रहे थे।
इसके अलावा, सरकारी वकील ने तर्क दिया कि गोडसे और सावरकर के बीच वैचारिक संबंध थे, क्योंकि दोनों गांधीजी की नीतियों के आलोचक थे, विशेष रूप से मुसलमानों के प्रति उनकी सहिष्णुता और पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने के निर्णय पर।
सावरकर की दलीलें और बचाव
सावरकर के वकीलों ने अदालत में निम्नलिखित दलीलें दीं:
1. गवाही की विश्वसनीयता पर सवाल: सावरकर के बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि बड़गे की गवाही परिस्थितिजन्य है और इसे प्रत्यक्ष सबूत नहीं माना जा सकता। उन्होंने कहा कि “यशस्वी होकर लौटो” जैसे कथन को हत्या की साजिश का आदेश मानना अतिशयोक्ति होगी।
2. प्रत्यक्ष साक्ष्य का अभाव: बचाव पक्ष ने तर्क दिया कि नाथूराम गोडसे या नारायण आप्टे ने अपने बयानों में कभी यह नहीं कहा कि सावरकर ने उन्हें हत्या के लिए उकसाया या निर्देश दिया।
3. राजनीतिक साजिश का दावा: सावरकर ने अपने बचाव में कहा कि उन्हें गांधीजी के हत्या के मामले में फंसाया जा रहा है क्योंकि वे हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थक थे, जो तत्कालीन सरकार की विचारधारा के खिलाफ था।
बरी होने के कारण
1949 में विशेष अदालत ने सावरकर को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया। इसके पीछे मुख्य कारण थे:
1. बड़गे की गवाही पर भरोसा नहीं किया गया: अदालत ने दिगंबर बड़गे की गवाही को “विश्वसनीय लेकिन अपर्याप्त” माना। उन्होंने यह स्वीकार किया कि उन्होंने बातचीत का केवल एक हिस्सा सुना था और इसका संदर्भ स्पष्ट नहीं था।
2. अन्य ठोस सबूतों का अभाव: सरकारी वकील यह साबित करने में विफल रहे कि गोडसे और आप्टे के सावरकर से मिलने का संबंध सीधे तौर पर गांधीजी की हत्या से था
3. जांच में खामियां: जांच एजेंसियां यह साबित नहीं कर सकीं कि सावरकर ने हत्या की साजिश रची या इसके लिए सक्रिय रूप से कोई निर्देश दिए।
विवाद और ऐतिहासिक दृष्टिकोण
हालांकि अदालत ने सावरकर को दोषमुक्त कर दिया, लेकिन इस मामले पर बहस कभी खत्म नहीं हुई। कई इतिहासकार और विशेषज्ञ मानते हैं कि:
1. सावरकर पर गांधीजी की हत्या की साजिश में शामिल होने का आरोप सही हो सकता है, लेकिन कानूनी तौर पर उन्हें दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं थे।
2. तत्कालीन जांच एजेंसियों और सरकार के पास सावरकर के खिलाफ ठोस मामला बनाने के लिए पर्याप्त समय और संसाधन नहीं थे।
आर.के. कपूर आयोग की रिपोर्ट
1960 के दशक में गांधी हत्याकांड की दोबारा जांच हुई। न्यायमूर्ति जी.डी. कपूर आयोग की रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकाला गया कि सावरकर से जुड़े कुछ सबूत और गवाहियाँ यह संकेत देते हैं कि वह षड्यंत्र का हिस्सा हो सकते हैं। हालांकि, इस रिपोर्ट का कोई कानूनी प्रभाव नहीं पड़ा।
निष्कर्ष
वीर सावरकर की बरी होने की प्रमुख वजहें कानूनी प्रक्रिया और साक्ष्यों की कमी थीं। हालांकि उनके राजनीतिक विचार और गांधीजी की हत्या के षड्यंत्र के बीच वैचारिक समानताएं थीं, लेकिन इसे अदालत में सिद्ध नहीं किया जा सका
। यह मामला आज भी भारतीय इतिहास और राजनीति में विवाद का विषय बना हुआ है।
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